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कर्णाटक की भूमि, जिसने हिंदू, बौद्ध और जैन धर्मों को किया महत्त्वपूर्ण योगदान

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पिछले सप्ताह के लेख में हमने विजयनगर साम्राज्य के बारे में जाना, कैसे यह साम्राज्य तथा संपूर्ण दक्खन का क्षेत्र कर्णाटक राज्य कहलाता था और उसमें तथा आधुनिक कर्णाटक राज्य में अंतर समझा। आइए इस चर्चा को जारी रखते हुए कर्णाटक राज्य के अन्य राजनितिक शक्तियों के बारे में भी जानते हैं।

आधुनिक कर्णाटक राज्य के क्षेत्र में वैदिक संस्कृति के आने से बहुत पहले, वहाँ के पूर्व-ऐतिहासिक निवासी मृतकों के लिए विशाल डोलमेन पत्थर खड़े कर रहें थे। यह संभव है कि ये लोग पशुपालक और खनिक थे और 4000 वर्ष पूर्व हड़प्पा की सभ्यता को सोना उपलब्ध कराते थे। एक किंवदंती के अनुसार, 2,300 वर्ष पहले, चाणक्य के शिष्य, चंद्रगुप्त मौर्य, अपने जीवन के अंतिम चरण में जैन धर्म अपनाकर एक भयंकर सूखे के समय पाटलिपुत्र से मैसूर के क्षेत्र आए थे। यहाँ उन्होंने अपने गुरू, भद्रबाहु, के साथ एक धार्मिक अनुष्ठान के अनुसार आमरण उपवास किया था। उनके पोते, सम्राट अशोक, ने बौद्ध धर्म अपनाकर उत्तर कर्णाटक के क्षेत्र में कई आदेशपत्र और स्तूप बनवाए। दरअसल, यहाँ के सन्नति स्तूप में अशोक की सबसे प्राचीन प्रतिमा पाई जाती है।

लगभग 1400 वर्ष पहले, चालुक्य राजाओं ने कन्नौज के राजा हर्षवर्धन के दक्षिणी फैलाव और अरबों के पूर्वी फैलाव को रोका था। वे शिव और विष्णु के उपासक थे। उनके समर्थन से बादामी, पट्टडक्कल और ऐहोले की गुफ़ाओं में इन देवताओं की सबसे प्रारंभिक प्रतिमाएं बनवाईं गईं और इस प्रकार हिंदू धर्म का राजनीति में निर्णायक प्रभाव होने लगा। फिर, लगभग 1200 वर्ष पहले, राष्ट्रकूट राजवंश ने चालुक्य राजवंश की जगह लेकर कन्नौज पर नियंत्रण पाने की कोशिश की। इस प्रयास में उन्हें पूर्वी भारत के पाल राजवंश और पश्चिमी भारत के प्रतिहारा राजवंश से द्वंद्व करना पड़ा। अमोघवर्ष इस राजवंश के सबसे प्रसिद्ध सम्राट थे। सैन्य अभियानों और कूटनीति के लिए प्रसिद्ध होने के साथ-साथ उनका साहित्य में भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। दुर्भाग्यवश, ये विश्व प्रसिद्ध राजा आज कर्णाटक के बाहर शायद ही जाने जाते हैं।

1000 वर्ष पहले, दक्षिण कर्णाटक के गंग राजवंश के समय जैन समुदाय ने मैसूर के पास गोमतेश्वर बाहुबली की सुप्रसिद्ध मूर्ति बनाई। यह मूर्ति उसी जगह स्थित है जहाँ सदियों पहले चंद्रगुप्त मौर्य ने आमरण उपवास किया था। फिर, पश्चिमी चालुक्य राजवंश और चोल राजवंश में भीषण लड़ाइयों के बाद, दक्षिण कर्णाटक में 11वीं सदी में रामानुजाचार्य और 13वीं सदी में माधवाचार्य वेदांत का प्रचार करने लगें थे। दूसरी ओर, उत्तर कर्णाटक के चालुक्य राजवंश की भूमि में, 12वीं सदी में, बसवण्णा मंदिर और जाति व्यवस्था को चुनौती दे रहें थे। बसवण्णा के अनुयायी छोटीसी डिबिया के भीतर रखा लघु आत्मलिंग अपने गले में पहनते हैं, यह मानते हुए कि वह शिव अर्थात आत्मा का प्रतीक है।

गंग राजवंश के बाद होयसल राजाओं ने इस क्षेत्र पर राज किया। उनकी सहायता से कन्नड भाषा में जैन रामायण और महाभारत रचे गए। उन्होंने दक्षिण कर्णाटक में बेलूर और हालेबिदु में तारों के आकार के मंदिर भी बनवाए, जो अपनी उत्कृष्ट तराशी के लिए जाने जाते हैं। इस क्षेत्र में जन साधारण उन योद्धाओं के सम्मान में वीर-गल नामक पत्थर खड़े कर रहें थे जिनकी गांवों को जंगली प्राणियों और लुटेरों से सुरक्षित रखते हुए मृत्यु हुई थी। फिर, जैसे जैन धर्म का प्रभाव घटकर हिंदू धर्म का प्रभाव बढ़ने लगा वैसे कन्नड और तमिल भाषी क्षेत्रों के बीच स्थित कावेरी नदी के तीन द्वीपों पर विष्णु के रंगनाथ रूप को समर्पित मंदिर बनाए गए। आज इन मंदिरों में विशाल गोपुरम हैं। लेकिन ये गोपुरम मूल मंदिरों के निर्माण के बहुत बाद, विजयनगर साम्राज्य के समय, स्पष्टतया शक्ति के प्रदर्शन के लिए बनाए गए।

विजयनगर साम्राज्य के शुरुआती दौर में विरुपक्ष के रूप में शिव उसके संरक्षक देवता थे, जो कन्नड भाषी क्षेत्र में स्थित थे। लेकिन कृष्णदेवराय के तेलुगु भाषी क्षेत्र पर नियंत्रण पाने के बाद तिरुपति बालाजी उनके संरक्षक देवता बन गए। इससे स्पष्ट है कि उस समय न केवल शिव और विष्णु उपासकों में बल्कि राजदरबार में कन्नड और तेलुगु भाषियों में भी प्रतिद्वन्द्व था। कई यूरोपीय यात्री विजयनगर की भव्यता, उसकी समृद्धि और उसके कई बाज़ार और मंदिर देखकर दंग रह जाते। लेकिन सन 1565 में यह विशाल शहर पाँच दक्खनी सुल्तानों के हाथों नष्ट हुआ और उसके राजाओं को दक्षिण जाना पड़ा। इसके बावजूद इस क्षेत्र में विजयनगर की यादें बनी रहीं, जिस भूमि में स्वयं श्री राम को सीता को मुक्त करने के लिए मदद मिली थी।

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